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मुक्तक में
घरः दस भावचित्र

 

भूकंप

मेरे हृदय की कोमलता को
अपने क्रूर हाथों से
बेध कर
ऊँची अट्टालिकाओं का निर्माण किया
उखाड़ कर प्राणवाही पेड़ - पौधे
बो दिए धुआँ उगलते कल - कारखाने
उत्पादन के सामान सजाए
मेरे पोर - पोर को बींध कर
स्तंभ गाड़े
विद्युतवाही तारों के
जलवाही धारों को बाँध दिया।
तुम्हारी कुदालों, खुरपियों, फावड़ों,
मशीनों, आरियों, बुलडोजरों से
कँपती थरथराती रही मैं ।

तुम्हारे घरों की नींव
मेरी बाहों पर थी
अपने घर के मान में
सरो - सामान में
भूल गए तुम ।

मैं थोड़ा हिली
तो लो
भरभरा कर गिर गए
तुम्हारे घर ।
फटा तो हृदय
मेरा ही ।

16 नवंबर 2007

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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