तुम नहीं आए
पथ निहारते सूखे पलकों के छोर,
आए नहीं तुम प्रियतम जब से इस ओर
नयनों में कैद हुए सपनों के
गाँव,
नदिया के तट वाले बरगद की छाँव
सुधियों में छिप-छिप कर आते चितचोर,
आए नहीं तुम प्रियतम जब से इस ओर
परिणय की परिभाषा कर सकता कौन?
अन्तस की पीड़ा को सींच रहा मौन।
दे जाती है सम्बल रोज नयी भोर,
आए नहीं तुम प्रियतम जब से इस ओर
तुमसे था होने का एक मात्र
अर्थ,
तुम बिन तो जीवन ही लगता है व्यर्थ
सावन में गुमसुम है प्राणों का मोर,
आए नहीं तुम प्रियतम जब से इस ओर
पल भर ही आ जाओ मिलने इक बार,
आतुर अभिनन्दन को स्वाँसों के हार
कब जाने टूट जाय जीवन की डोर,
आए नहीं तुम प्रियतम जब से इस ओर
पथ निहारते सूखे पलकों के छोर,
आए नहीं तुम प्रियतम जब से इस ओर
१ फरवरी २०१० |