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माँ
एक चिड़िया कौए से भिड़ी,
वजूद का अन्तर था बहुत,
किन्तु चूजों के जीवन का प्रश्न था,
'चिड़िया' कौए पर भारी पड़ी।
एक सुअरी चल रही थी, अपने
प्यारे-प्यारे बच्चों के साथ,
घूरती थी भाँप कर कुत्तों की घात,
भारारती लड़कों को डराकर भगा रही थी,
जी हाँ वह भी माँ का धर्म निभा रही थी।
सड़क किनारे एक 'कुतिया',
अपने पिल्लों को दूध पिला रही थी,
जीभ फेर-फेर कर उन्हें दुलरा रही थी,
ममता का अमृत लुटा कर,
'मातृत्व' का सुख पा रही थी।
एक बन्दरिया,
छाती से चिपकाए थी 'मृत' एक नन्हा,
छोड़ना नहीं चाहती थी
उसे पल भर भी तन्हा,
शायद जी उठेगा फिर से
यही सोच कर अंक लगा रही थी,
'माँ' क्या होती है?
दुनिया को बता रही थी।
सरकारी हस्पताल की चारदीवारी के
पास,
पड़ी थी एक मानव शिशु की लाश,
न पिता का अता-पता था, शिशु
न भाग्यहीन की 'माँ' ही थी आस-पास,
कुछ प्रबुद्ध लोग
आते-जाते बतिया रहे थे
उसकी अभागी माँ
पर तरह-तरह के आरोप लगा रहे थे
सजल हुई आँखें पोंछ
कवि ने सोचा
कितना अच्छा होता?
यदि यह शिशु
किसी कुतिया का 'पिल्ला',
बन्दरिया का 'नन्हा',
या
किसी ममतामयी
सुअरी का ही 'बच्चा' होता!
१ फरवरी २०१० |