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आदमी
मैं 'आदमी' हूँ!
जी हाँ वही, 'आदमी'
जो कालान्तर में था
'असभ्य' और अविवेकी
परन्तु अब वह नहीं हूँ!
परिवर्तन नियम है,
प्रकृति का,
इसीलिए तो बदल गया हूँ,
मैं भी।
उस 'असभ्य' आदमी ने
आविश्कार किया था आग का,
रोशनी के लिए।
बनाए थे हथियार,
आत्म रक्षा के लिए।
किया शिकार,
पेट पालने के लिए।
और बन गया
'असभ्य' से 'सभ्य'।
मैंने फिर बनाई आग,
पर घरों को प्राणवान करने के लिए नहीं,
उन्हें जलाने के लिए।
बनाए मैंने भी हथियार,
किन्तु आत्मरक्षा के लिए नहीं,
विनाश के लिए।
मैं भी करता हूँ शिकार,
पर किसी आदमखोर पशु का नहीं,
उसी आदमी का,
जिसने मुझे,
बताया था आदमी,
बनाया था आदमी,
जो प्रतीक है, हमारे विकास का।
मैं परमार्थ के लिए नहीं,
स्वार्थ के लिए जीवित हूँ,
मेरा जीवन समर्पित है,
उस आदमी के लिए है,
जो लुप्त है मुझमें,
मेरी सोच में,
मेरे कर्म में, मेरे धर्म में।
मैं भेद नहीं करता,
पशु और मानव में,
देव और दानव में,
बीवी, बेटी, बहन और माँ में,
क्योंकि
मनोरंजन का एक साधन मात्र हैं,
ये सब
मेरे लिए
मैं 'आदमी' हूँ!
एक 'सभ्य' आदमी।
१ फरवरी २०१० |