भीतर तक
अपने ही अँधकार को उलीचते उलाचते
त्रस्त और थकी हुई आत्मा उग आती है
शरीर की सतह पर घास की तरह
चूसती है उजाले को अपनी नोक से
और जगमगा जाती है
भीतर तक।
पीछे
बाहर निकल आई थी वह
अपने से
पीछे छूट गया था
उसके आकार का अंधेरा।
होने का शब्द
नदी अगर थी, तो कहाँ थी?
कब थी?
पेड़ों को कैंया लिए भागती नदी
मन ही मन आवाज़ दी नदी को
कि होगी तो बोलेगी
हथेली से मूँद दिया आसपास के सारे शब्दों को
कि निःशब्दता में सुनाई दे
नदी के होने का शब्द।
सह्याद्री के पहाड़ों में
उससे एकदम उलट दिशा में भागते
सह्याद्री के पहाड़ों में
सुबह सुबह
धरती के उड़ने की आशंका
टोंच से उड़ी
फुलचुक्की की देह में
धरती का लाघव
पृथ्वी पर पड़ती
अपनी ही छाया में
धरती के लौट आने का भाव
१४ जनवरी २००८
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