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अनुभूति में दीपाली सुतार की रचनाएँ—

छंदमुक्त में-
औरतें
गुफाओं का राज
नापाक भाषा
ये तुम भी जानते हो
शब्द गाते हैं
 

  गुफाओं का राज

सही गलत का कैसे करें फैसला?
अधिकार तो हड़प चुका है
तख्त पर बैठा वह आदमी।
ढोल-ताशे के शोर में
डूब गया क्रांति नाद तमाम।

तबाही के इस अपूर्व जश्न में
घट चुकी है अखाड़े की मिट्टी की क़ीमत।
सड़क के इस पार हो या उस पार
सुनायी देती है सिर्फ
अंधेरों में छिपी खंजरों की भयावह आवाज।

दिन शुरु होने से रात तक
नजर आते हैं कई-कई नकली और धुँधले चेहरे
हजारों मुखौटे, एक के ऊपर एक पहने।
कैसे जिए इंसान इस सर्कस में?
हर मायने... हर तब्बसुम---
इसकी...उसकी...तुम्हारी...हमारी
फरेब लगती है।
गुजरती सड़कों पर...
अंधेरा और काला रंग
मिलकर हवा संग डराते हैं भाँय-भाँय।

सावधान!
शेर की जगह अब बदल चुकी है दोस्तों
सियारों के हाथ अब
सिंहासन का है राज
भवचक्र के इस संसार में
अभी खुलेंगे गुफाओं से अनेक राज।

१ अक्टूबर २०२३

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