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साज और धुन
कैसी यह आवाज?
जाने कहाँ से आती?
घुल जाती कानों में।
उतर जाती दिल की तह तक।
धरोहर में मिली इस अनजान डगर पर।
चारों तरफ उड़ती गर्द, शोर फैला काफिलों का
पर, यह धुन- निरंतर।
अलग ही पहचान इसकी
सुनी अनसुनी - लगती नहीं।
सब खोये चल रहे धुन पर मदमस्त, उन्मद,
भावुक।
कौन सा साज छेड़ रहा धुन ऐसी।
राहें बदल-बदल देखने निकले कई।
कोई जंगल देख मुड़ गया।
कोई पर्वत देख चढ़ गया।
झरना देख रुक गया कोई
तो साथ हो लिया देख नदी की चाल
अपनी ही धुन में, रमा ली धुन की सरगम।
कई गुम हो गए, कई लौटे
कोई चुप, आँखें, जाने क्या देखीं।
कानों ने जाने क्या सुना
बस, अवाक।
सिर्फ खामोश
लब कह रहे अपनी दास्तान।
मेले से लग जाते जाने कितनी कहानी।
पर समझते विरले जाने कितनी ज़ुबानी।
कैसा यह साज?
छेड़ रहा कौन?
अब तक यह प्रश्न उतना ही मौन.
मन रहे अशांत धीरज बँधाती यह धुन।
मन रहे उन्मद थिरकती साथ धुन।
हवा की तरंगों से बँधी नहीं
अंतरिक्ष तक देख सीमित नहीं।
समय के साथ चलती नहीं।
जीवन से परे मृत्यु से विमुख,
जाने कितनी सदियों सुना अगणित मनीषियों ने
अथक बखाना।
उलझाया तर्क-कुतर्कों में बाँट दिया कारवाँ
जो था कभी साथ।
अगिनत निकली पगडंडियाँ
चलते जाते सब बँटते जाते सब।
सतरंगी सी लगने लगी,
आँखों को छू, किरण सूरज की।
सरगमी हो गयी, कानों को छू, यह अद्भुत
धुन।
अब तो बनाने लगे,
अगिनत साज जाने कितनी चाप
सजाने धुन के स्वर,
अलापते राग सदियों का रियाज,
घरानों के रिवाज उस्तादों के अंदाज
अलख लगाते महफिलें सजाते,
अपना ही अंदाज अपनी ही धुनें।
कहाँ तक सुने कोई?
कौन समझाये इन पाखंडियों को
सब आलाप रहे धुन से परे।
साज सारे इनके अर्धविकसित,
कहाँ से जगाये
यह निर्मल धुन।
२८ अप्रैल २०१४
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