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नया
मन्जर
कैसा गूँज रहा अट्टहास
इन शहरों से,
पिघल रहा, पत्थर पहाड़ों के।
कैसी उठ रही सिसकियाँ
इन गलियारों से
सरक रहे जंगल,
शहरों की सीमाओं से।
सारे वहशी जानवर
डरे सहमे से तक रहे
कोई इन्सान न दिख जाये।
पिघलते पत्थर
सरकते जंगल
सहमे जानवर
देख नजारे सारे
सागर सारा टिक रह गया
कोटर में मेरी आँख के
बूँद एक आँसू की बन
न बह रहा न टपक रहा।
२८ अप्रैल २०१४
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