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रूढ़ियाँ
सारे घर में घूमती रहती
निःसंकोच, निर्भय
पैरों में बँधे घुँघरू
बजते रहते, छन, छन, छन।
एक पल भी बैठती नहीं
पास मेरे चैन से
बीच कदमों से निकल भागती।
खाना दो तो कतरा जाती,
जाने कुछ ढूँढ रही, घर में मेरे
बस घूमती ही रहती बेचैन सी
छन, छन, छन।
अनायास ही कूद खिड़की से
जाने कहाँ चली जाती।
धीरे-धीरे आवाज़ घुँघरूओं की
कमजोर पड़ने लगती-
बस दूर तक-देखता उसे मैं
ओझल होते लाल-पीले फूलों से
दूर लहलहाती झाड़ियों की ओट से।
काले, भूरे चितकबरे रंगों की
सफ़ेद स्याह, वह बिल्ली।
फिर अचानक चौंक कर
उठ पड़ता, गहरे स्वप्न से
देखता पास खड़ी
घूरती, लाल-लाल आँखों से
अजीब सी, डरावनी
पर भोली-भाली, प्यारी बिल्ली।
६ अप्रैल २०१५ |