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जुआरी
जुआरी एक बना
भेज दिया इस बाजार में।
तेरे ही बाज़ार, तेरे ही खेल,
तेरे ही नियम, तेरे ही परिणाम।
कहीं खेल हो रहा
कहीं नाच, गाने
तो कहीं तमाशे।
कहीं कहकहे, तो कहीं अट्टहास।
कोई गुमसुम, तो कोई धुत।
सब पर तेरी तीखी नज़र।
सारे माहौल में- बिखेर दिया
नशीला धुँआ
मैं बस मदमस्त
नशा सा छा रहा, जहाँ में सारे-
ना कोई सोच, ना कोई उम्मीद।
लत एक लगा दी
बस हारने की।
मैं हारता जाता,
तू खेले जाता।
अजीब सा रचा
खेला तूने।
कहाँ से सीखा, कहाँ से लाया
खेल इतने।
कहीं तू भी तो
कभी ना कहीं
रहा, एक जुआरी तो नहीं।
६ अप्रैल २०१५ |