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अनुभूति में उत्कर्ष अग्निहोत्री की रचनाएँ—

अंजुमन में--
अपना रुतबा छोड़ दिया
ज़माने को जब तोलती हैं किताबें
मुसलसल ज़ाफ़रानी
मेरे नजदीक गीतावली
हर घड़ी याद

 

अपना रुतबा छोड़ दिया

तुम्हें लगा के उसने अपना रुतबा छोड़ दिया
पगड़ी नहीं तख्त के आगे सजदा छोड़ दिया

ये उसका लहजा था कहकर थोड़ा छोड़ दिया
एक ग़ज़ल लिक्खी फिर उसका मतला छोड़ दिया

जिसे ज़रा सी बात समझकर छोड़ रहे हो तुम
इसी वचन के लिए राम ने क्या-क्या छोड़ दिया

उससे अपना रिश्ता कुछ-कुछ ऐसा लगता है
जैसे लिखकर कोई शे'र अधूरा छोड़ दिया

ये सच है मिलने आए हो सालों बाद मगर
अब तो मैंने सबसे मिलना-जुलना छोड़ दिया

मेरे काम से तुमको कितनी दिक्कत होती है
और ज़ियादा मत डाँटो लो अच्छा छोड़ दिया

तुम्हें वहम था अंजुलि भर पानी दे देने का
लेकिन उन प्यासों ने बहता दरिया छोड़ दिया

अब वो सबको हँसा रहा है अपनी बातों से
जिसको तुमने कल मेले में रोता छोड़ दिया

कान्हा की लीला जिसको बच्चों में नहीं दिखी
सूरदास को उसने सचमुच अंधा छोड़ दिया

मेरे हर मुकाम पर कुछ उसका भी कर्ज़ा है
जिसने हँसते-हँसते मेरा रास्ता छोड़ दिया

१ दिसंबर २०२३

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