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छिपे हैं मन में जो
छीन लेगी नेकियाँ
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अंजुमन में-
अँधेरे जब ज़रा
आदमी क्या
इक नई कशमकश
खेत सारे छिन गए
नज़र में आजतक
बहन बेटियाँ
बहुत नज़दीक
बाबू जी

मन में मेरे

 

बाबू जी

दुख तो गाँव - मुहल्ले के भी हरते आए बाबूजी
पर जिनगी की भट्ठी में खुद जरते आए बाबूजी

कुर्ता, धोती, गमछा, टोपी सब जुट पाना मुश्किल था
पर बच्चों की फीस समय से भरते आए बाबूजी

बड़की की शादी से लेकर फूलमती के गौने तक
जान सरीखी धरती गिरवी धरते आए बाबूजी

रोज़ वसूली कोई न कोई, खाद कभी तो बीज कभी
इज़्ज़त की कुर्की से हरदम डरते आए बाबूजी

हाथ न आया कोई नतीजा, झगड़े सारे जस के तस
पूरे जीवन कोट - कचहरी करते आए बाबूजी

नाती-पोते वाले होकर अब भी गाँव में तन्हा हैं
वो परिवार कहाँ है जिस पर मरते आए बाबूजी

६ दिसंबर २०१०

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