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इक चाँद तीरगी में
इसी खातिर
बैठे हो जिसके खौफ़ से छुपकर
मेरे आगे

अंजुमन में-
कभी यकीन की दुनिया में
खुशफहमियों में चूर

भाव महफिल में
हवाओं के रुख

 

हवाओं के रुख

अगर हवाओं के रुख मेहरबाँ नहीं होते
तो बुझती आग के तेवर जवाँ नहीं होते

दिलों पे बर्फ जमीं है लबों पे सहरा है
कहीं खुलूस के झरने रवाँ नहीं होते

हम इस ज़मीन को अश्कों से सब्ज़ करते हैं
ये वो चमन है जहाँ बागबाँ नहीं होते

कहाँ नहीं हैं हमारे भी ख़ैरख्वाह , मगर
जहाँ गुहार लगाओ वहाँ नहीं होते

वफा का ज़िक्र चलाया तो हंस के बोले वो
फ़ुज़ूल काम हमारे यहाँ नहीं होते

२ जनवरी २०१२

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