अनुभूति में
'साग़र' पालमपुरी की रचनाएँ-
नई रचनाएँ
अपनी फ़ितरत
किस को है मालूम न जाने
खोये-खोये-से हो
ज़ेह्न अपना
सोच के ये निकले
अंजुमन में-
कहाँ चला गया बचपन
चिड़ियों के घोसले
जिसको पाना है
बेसहारों के मददगार
रात कट जाए
वो बस के मेरे दिल में भी
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वो बस के मेरे
दिल में भी
वो बस के मेरे दिल में भी
नज़रों से दूर था
दुनिया का था क़ुसूर न उसका क़ुसूर था
हम खो गये थे ख़ुद ही किसी की तलाश में
ये हादसा भी इश्क़ में होना ज़रूर था
गर्दन झुकी तो थी तेरे दीदार के लिये
देखा मगर तो शीशा-ए-दिल चूर-चूर था
बदली जो रुत तो शाम-ओ-सहर खिलखिला उठे
मंज़र वो दिलनवाज़ ख़ुदा का ज़हूर था
उसके बग़ैर कुछ भी दिखाई न दे मुझे
कैसे कहूँ वो मेरी निगाहों का नूर था
कल तक तो समझते थे गुनहगार वो मुझे
क्यूँ आज कह रहे हैं कि मैं बेक़ुसूर था
जो मुझको क़त्ल करके सुकूँ से न सो सका
दुश्मन तो था ज़रूर मगर बा-शऊर था
साग़र वो कोसते हैं ज़माने को किसलिए
उनको डुबो गया जो उन्हीं का ग़रूर था
८ सितंबर २००८
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