अनुभूति में
'साग़र' पालमपुरी की रचनाएँ-
नई रचनाएँ
अपनी फ़ितरत
किस को है मालूम न जाने
खोये-खोये-से हो
ज़ेह्न अपना
सोच के ये निकले
अंजुमन में-
कहाँ चला गया बचपन
चिड़ियों के घोसले
जिसको पाना है
बेसहारों के मददगार
रात कट जाए
वो बस के मेरे दिल में भी
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रात कट जाए
रात कट जाये तो फिर बर्फ़ की
चादर देखें
घर की खिड़की से नई सुबह का मंज़र देखें
सोच के बन में भटक जायें अगर जागें तो
क्यों न देखे हुए ख़्वाबों में ही खो कर देखें
हमनवा कोई नहीं दूर है मंज़िल फिर भी
बस अकेले तो कोई मील का पत्थर देखें
झूठ का ले के सहारा कई जी लेते हैं
हम जो सच बोलें तो हर हाथ में खंजर देखें
ज़िन्दगी कठिन मगर फिर भी
सुहानी है यहाँ
शहर के लोग कभी गाँवों में आकर देखें
चाँद तारों के तसव्वुर में जो नित रहते हैं
काश ! वो लोग कभी आ के ज़मीं पर देखें
उम्र भर तट पे ही बैठे रहें क्यों हम ‘साग़र!’
आओ, इक बार समंदर में उतर कर देखें
८ सितंबर २००८
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