किस को है मालूम न
जाने किस को है मालूम न
जाने
कब जीवन की साँझ ढले
मन के शीश महल में फिर भी
इक अनजानी आस पले
जिन नज़रों में मधुर मिलन की
चाह झलकती थी उनमें
विरह के बादल बरसें जब
यादों की पुरवाई चले
मैं हूँ घर का जोगी मेरी
अपनों को पहचान कहाँ
लेकिन परदेसों में अक्सर
घर-घर मेरी बात चले
जाने क्यों इस अन्धे युग को
सपनों पर विश्वास नहीं
गिरधर मुरली की धुन छेड़ें
जब-जब मीरा आँख मले
भूले से भी पाँव न धरना
माया के इस मधुबन में
जिसमें पग-पग पर राही को
तृष्णाओं का हिरण छले
अब उसके दरवाज़ों पे 'साग़र'!
संदेहों की काई है
गैरों को भी अपनाते थे
जिस नगरी के लोग भले.
३ नवंबर २००८ |