अपनी फ़ितरत
अपनी फ़ितरत वो कब बदलता है
साँप जो आस्तीं में पलता है
दिल में अरमान जो मचलता है
शेर बन कर ग़ज़ल में ढलता है
मुझको अपने वजूद का एहसास
इक छ्लावा-सा बन के छलता है
जब जुनूँ हद से गुज़र जाए तो
आगही का चराग़ जलता है
उसको मत रहनुमा समझ लेना
दो क़दम ही जो साथ चलता है
वो है मौजूद मेरी नस-नस में
जैसे सीने में दर्द पलता है
रिन्द 'साग़र'! उसे नहीं कहते
पी के थोड़ी-सी जो उछलता है
३ नवंबर ३००८ |