अनुभूति में
'साग़र' पालमपुरी की रचनाएँ-
नई रचनाएँ
अपनी फ़ितरत
किस को है मालूम न जाने
खोये-खोये-से हो
ज़ेह्न अपना
सोच के ये निकले
अंजुमन में-
कहाँ चला गया बचपन
चिड़ियों के घोसले
जिसको पाना है
बेसहारों के मददगार
रात कट जाए
वो बस के मेरे दिल में भी
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कहाँ चला गया
बचपन
कहाँ चला गया बचपन का वो समाँ
यारो!
कि जब ज़मीन पे जन्नत का था गुमाँ यारो!
बहार-ए-रफ़्ता को ढूँढें कहाँ यारो!
कि अब निगाहों में यादों की है ख़िज़ाँ यारो!
समंदरों की तहों से निकल के जलपरियाँ
कहाँ सुनाती है अब हमको लोरियाँ यारो!
बुझा-बुझा -सा है अब चाँद आरज़ूओं का
है माँद-माँद मुरादों की कहकशाँ यारो!
उफ़क़ पे डूबते सूरज के खूँ की लाली है
ठहर गये हैं ख़लाओं के क़ारवाँ यारो!
भटक गये थे जो ख़ुदग़र्ज़ियों के सहरा में
हवस ने उनको बनाया है नीम जाँ यारो!
ग़मों के घाट उतारी गई हैं जो ख़ुशियाँ
फ़ज़ा में उनकी चिताओं का है धुआँ यारो!
तड़प के तोड़ गया दम हिजाब का पंछी
झुकी है इस तरह इख़लाक़ की कमाँ यारो!
ख़ुलूस बिकता है ईमान-ओ-सिदक़ बिकते
हैं
बड़ी अजीब है दुनिया की ये दुकाँ यारो !
ये ज़िन्दगी तो बहार-ओ-ख़िज़ाँ का संगम है
ख़ुशी ही दायमी ,ग़म ही न जाविदाँ यारो !
क़रार अहल-ए-चमन को नसीब हो कैसे
कि हमज़बान हैं सैयाद-ओ—बाग़बाँ यारो!
हमारा दिल है किसी लाला ज़ार का बुलबुल
कभी मलूल कभी है ये शादमाँ यारो !
क़दम-क़दम पे यहाँ अस्मतों के मक़तल हैं
डगर-डगर पे वफ़ाओं के इम्तहाँ यारो!
बिरह की रात सितारे तो सो गये थे मगर
सहर को फूट के रोया था आसमाँ यारो!
मिले क़रार मेरी रूह को तभी ‘साग़र’!
मेरी जबीं हो और उनका हो आस्ताँ यारो!
८ सितंबर २००८
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