देखने वालों
देखने वालों को भरमाती रहीं
तितलियाँ कुछ नाच दिखलाती रहीं
ज़िन्दगी लेटी रही फुटपाथ पर
गाड़ियाँ आती रहीं जाती रहीं
भूक को चारा न जब कोई मिला
बेटियाँ माँ का बदन खाती रहीं
कुछ दुआओं के तस्द्दुक टल गई
कुछ बलाएँ सर पे मंडराती रहीं
लोग तो बस रोशनी लेते रहे
शम्माएं अपना आप पिघलाती रहीं
ये अनोखा रंग था तहजीब का
गालियाँ बन बन के गीत आती रहीं
लकड़ियाँ गीली थीं जल ना पायीं 'अक्स'
कुल सरापा अपना झुलसाती रहीं
७ जुलाई २००८
|