अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अनुभूति में गोपाल कृष्ण सक्सेना 'पंकज' की रचनाएँ-

अंजुमन में-
अब विदूषक
कुछ चुनिंदा शेर
चाँद को छू लो
चाँद तारों पर
तीन मुक्तक
दीवार में दरार
पृष्ठ सारा
मुहब्बत से देहरी
शिव लगे सुंदर लगे
श्रीराम बोलना
हक़ीक़त है
हिंदी की ग़जल

 

हक़ीक़त है

हक़ीक़त है या दिल को बहला रहा है,
सुना है ज़मीं पर खुद़ा आ रहा है।

जुदा कर न देना अदावत दिलों से,
अभी दुश्मनी में मज़ा आ रहा है।

बुरा वक़्त आया है कैसा लबों पर,
निगाहों से उनको छुआ जा रहा है।

मुझे खुदक़ुशी की ज़रूरत ही क्या है,
मेरा यार मेरी दवा ला रहा है।

पड़ोसी पड़ोसी के घर तक न पहुंचा,
सितारों से आगे जहाँ जा रहा है।

'मैं आऊंगा जब धर्म का नाश होगा',
वो कहता रहा पर कहाँ आ रहा है।

फ़रक़ कम या ज़्यादा का है सिर्फ़ 'पंकज',
जिसे देखो बारूद बरसा रहा है।

१ फरवरी २००५

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter