श
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रह-रह कर
आज साँझ मन टूटे-
काँचों पर गिरी हुई किरणों-सा
बिछला है
1
तनिक देर को छत पर हो आओ
चाँद तुम्हारे घर के पिछवारे
निकला है
प्रश्नों के
अन्तहीन घेरों में
बँध कर भी चुप-चुप ही रह लेना
सारे आकाश के अँधेरों को
अपनी ही पलकों पर
सह लेना
1
आओ, उस मौन को दिशा दे दें
जो अपने होठों पर अलग-अलग
पिघला है
अनजाने
किसी गीत की लय पर
हाथ से मुंडेरों को थपकाना
मुख टिका हथेली पर अनायास
डूब रही पलकों का
झपकाना
1
सारा का सारा चुक जाएगा
अनदेखा करने का ऋण जितना
पिछला है
--नरेश सक्सेना |