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खबरदार कविता
दहशत गुरू अफजल गया

हमलावर, आतंक का वो 'कल' गया,
कब से बचा 'दहशत गुरू' अफजल गया,
जिसकी थी खुराक बंदूकें, तड़ातड़ गोलियाँ
मौत से पहले वो देखो सिर्फ पीकर जल गया !

हम समर्पित सजग प्रहरी राष्ट्र के,
हर चुनौती के लिए तत्पर हैं हम !

फिर कोई अफजल न हो
सौगंध गंगा जल की है,
मौत का सामान है तैयार सुन
'आतंक' कल की बात थी यह बात झलकी है !

-प्रो. विश्वम्भर शुक्ल
११ फरवरी २०१३

कुर्सी का एक पाँव कहीं डोल रहा है !

कौन यह रहस्य नया खोल रहा है?
कुर्सी का एक पाँव कहीं डोल रहा है!

बाजीगरी के दिन गए, टोपी उछालिये
सर पे चढ़के जादू फिर से बोल रहा है!

रखने के लिए कुछ न कुछ तो चाहिए आखिर,
अब काल-पात्र फिर कोई टटोल रहा है!

इतिहास कुर्सियों का नाम हो जहां, वहाँ
उखडा हुआ सदैव ही भूगोल रहा है!

कुछ जोड़-तोड़ कीजिए, मौसम संभालिए,
शासन का तंत्र-मन्त्र गोल-मोल रहा है!

डंका बजानेवाले ही बदला किये यहाँ,
वोटर तो सिर्फ पीटा हुआ ढोल रहा है!

-प्रो. विश्वम्भर शुक्ल
४ फरवरी २०१३

जी, लोकतंत्र है !

जब आदमी सिकुड़कर हो रहा दोहरा,
सरकार का एलान है अब छंट गया कोहरा !
यह कौन मन्त्र है ?
जी, लोकतंत्र है !

ऊँचे भवन, अट्टालिका, ऊँचे ख़याल हैं,
सड़कों पे 'आदमी' के कैसे हाल-चाल हैं ?
क्या खूब तंत्र है !
जी, लोकतंत्र है !

दर्पण में झलकती है शिकन, रेख देख लो,
उपलब्धियों का अहर्निश उल्लेख देख लो !
कोई तो यंत्र है !
जी, लोकतंत्र है !

महँगी हुई है ज़िंदगी, बदला मिजाज़ है,
पीढ़ियों दर पीढ़ियों अपना ही राज है !
क्या कुनबा-तंत्र है ?
जी, लोकतंत्र है !

-प्रो.विश्वम्भर शुक्ल
२८ जनवरी २०१३
राजा नंगा है (युवराज की ताजपोशी पर)
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राजा जी को कौन बताए
राजा नंगा है
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आँखों पर मोटी सी पट्टी मुँह में दही जमा
झूठी जयकारों में उसका मन भी खूब रमा
जिस नाले वह डुबकी मारे
वो ही गंगा है
1
रुचती हैं राजा के मन को बस झूठी तारीफें
उसको कोसा करें बला से आगे की तारीखें
उसके राजकाज में सच कहना
बस पंगा है
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पीढ़ी दर पीढ़ी उसने है पाया यह दर्जा
ताका करती है उसका मुँह पढ़ी-लिखी परजा
वह मुस्काए मुल्क समझ लो
बिल्कुल चंगा है
1
- ओमप्रकाश तिवारी
२१ जनवरी २०१३

मौत का ना-पाक खेल

जेबें हमारी आये दिन टटोलते रहिये,
और पालतू सुए की तरह बोलते रहिये !

पहले हवा में गाँठ लगाकर करके देखिये,
फिर एक-एक करके गाँठ खोलते रहिये !

जो देश की सीमा पे खेलें खून की होली,
उन दुश्मनों के साथ क्रिकेट खेलते रहिये !

वो खेल जाएँ मौत का ना-पाक खेल भी
पर दोस्ती का आप शहद घोलते रहिये !

घर में लगी है आग, आप देखिये धुआँ,
केवल कुएँ के आस-पास डोलते रहिये !

-प्रो.विश्वम्भर शुक्ल
१४ जनवरी २०१३

नए वर्ष के नाम

गए -वर्ष ने लिखी विरासत नए-वर्ष के नाम,
आंसू लिखे,घुटन लिख डाली, लिक्खा दर्द तमाम!

लिख डाले बेख़ौफ़ दरिंदे, वर्दीवाले गुंडे लिक्खे,
लिखे छुरे, चाकू, बंदूकें जिनके हुए गुलाम !

लिक्खी अपनी इस दिल्ली की ऐसी क्रूर-कथा,
भूखी हवस और वो अंधी हिंसा बिना लगाम !

आंदोलन-का-हल्ला-लिक्खा,-हर-दिन-एक-पुछल्ला-लिक्खा
बिना बाँह का कुर्ता लिक्खा इस ठिठुरन के नाम !

लिक्खी बैसाखी पर चलती यह लँगडी सरकार,
लिखी पेड़ पर चढी कीमतें, लिक्खा महँगा घाम !

खाली टीन-कनस्तर लिक्खे, नेताओं के चौवे-छक्के,
अर्थ-व्यवस्था कों खाँसी, कुर्सी को लिखा जुकाम !

अगला-पन्ना,-ता
-ता-धिन्ना,-रोज-समस्या-कब-तक-गिनना?
अभी सीन जारी है इससे लिक्खीं नही तमाम !

-विश्वम्भर शुक्ल
७ जनवरी २०१३

नए बरस का तोहफा

पानी पी और लाठी खा,
नए बरस का ले तोहफा !

थोड़ी टूट-फूट करवा ले
बाँध ले पट्टी, मत चिल्ला !

लुटती अस्मत लुटने दे,
लेना देना हमसे क्या !

बहरे -अंधे जब कुर्सी पर
बिला वजह मत खून बहा !

क्यों इतना हल्ला-गुल्ला ?
देर हुई अब घर को जा !

''हमे मुल्क की चिंता है ना,
बहुत हुआ अब सर मत खा !"

--विश्वंभर शुक्ल
३१ दिसंबर २०१२

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