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११. १०. २०१०

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कहाँ पर सोया संवेदन

 

चौबारे पर चाटुकारिता, गर्त में अपनापन
कहाँ पर सोया संवेदन

झपट ले गया बाज़
चूनरी, भीड़ भरे बाज़ार,
दंभी लंपट पैसे वाला
हो जैसे बटमार,
तिल जितनी भी ओट
मिली ना, नवयौवन सहमा
मूक-बधिर मानवता
लूले लंगड़ों की भरमार,
संबंधों के सूनेपन का, मचा हुआ क्रंदन
कहाँ पर सोया संवेदन

बनी देह व्यभिचारिण
ऐसी, ममता लील गयी,
स्पंदन मृत हुआ
धूप हो गीली सील गयी,
आँचल का ललना
कूड़े मे खोज रहा स्तन,
अंतर्द्वंद्व सहम गये
घटना अंतस छील गयी,
जड़ की है मनमानी ऐसी, मूक हुआ चेतन
कहाँ पर सोया संवेदन

माथे की हर झुर्री सिसकी
रोया बहुत बुढापा,
कौन करेगा लाड़-चिरौरी
मन पत्ते सा काँपा,
सारी उम्र संजोयी जिनसे
आशायें उम्मीदें
चौखट बैठी पीठ फेरकर
दे अब कौन दिलासा,
धीरज कौन रखाएगा अब, छूटा अवलंबन
कहाँ पर सोया संवेदन

-प्रवीण पंडित

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संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन
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