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हादसे
ही हादसे
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बाजुओं में
उफ़, अचाहे ही कसे,
हादसे, बस, हादसे ही हादसे।
चाह थी सब
लोग आपस में रहें,
प्रेम, श्रद्धा, स्नेह, सुख से, मेल से।
क्या पता था,
स्वार्थ निर्मित ट्रैक पर,
कटेंगे हम, नफ़रतों की रेल से।
और भोले
यात्रियों की नियति पर,
व्यंग्य बेपरवाह सिग्नल ने कसे।
मकबरों में
बदल जाना घरों का,
यातनाओं का बहुत लंबा सफ़र।
देखकर भी
लोग क्यों पढ़ते नहीं,
इस तरह पल-पल बिखरने की ख़बर।
फितरतें हर
पल जहाँ पर दाँव दें,
चाहकर भी आदमी कैसे हँसे?-- अजय गुप्त |
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