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कार्यशाला-८
नवगीत का पाठशाला में पिछले माह आयोजित की गई- आठवीं कार्यशाला जिसका विषय था
'आतंक का साया'। कार्यशाला में नये पुराने रचनाकारों की ३० रचनाएँ प्रकाशित की गईं। चुनी हुई १७
रचनाएँ यहाँ प्रस्तुत हैं-

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

१- अब तो जागिये

आ रहा है -
धुंध का सैलाब।
अब तो जागिये

आज घर की लाज चहुँदिश
कीचकों से त्रस्त है।
रहनुमाई राग-रंग की
वीथियों में मस्त है

हर सुरक्षा
लग रही है ख्वाब
अब तो जागिये

हर कदम पर खौफ़
पैराशूट से उतरा यहाँ
आस्तीनों में छुपे
गद्दार से ख़तरा यहाँ

दाँव पर
लगती वतन की आब
अब तो जागिये

मुस्कुराती गंध
नफ़रत की हवा में खो गई
आस्था भी गोधरा-सी
रक्तरंजित हो गई

रैलियों में
बँट रहा तेज़ाब
अब तो जागिये

-- हरिशंकर सक्सेना

४- बौरा गया आतंक
हाथ में
बंदूक लेकर
आ गया आतंक!

काँपता बाज़ार,
थर्राते हैं चौराहे।
स्वप्न-पक्षी के
परों को अब कोई बाँधे।
लो, खुले आकाश पर
गहरा गया आतंक!

आज रिश्ते काँच की
दीवार से लड़ते।
देहरी पर नई कीलें
ठोंककर हँसते।
सुर्ख आँखों पर उतरकर
छा गया आतंक!

सभ्यता विश्वास के घर
हो गई शैतान।
सत्य के नीचे खुली है
झूठ की दूकान।
रक्त-सिंचित पाँव धर
बौरा गया आतंक!

-- डॉ. ओमप्रकाश सिंह

६- खूँखार हवाएँ

बस्ती बस्ती आ पहुँची है
जंगल की खूँख्वार हवाएँ।

उत्पीड़न अपराध बोध से
कोई दिशा नहीं है खाली।
रखवाले पथ से भटके हैं
जन की कौन करे रखवाली।
चल पड़ने की मज़बूरी में
पग पग उगती हैं शंकाएँ।

कोलाहल गलियों-गलियारे
जगह-जगह जैसे हो मेला।
संकट के क्षण हर कोई पाता
अपने को ज्यों निपट अकेला।
अपराधों के हाथ लगी हैं
रथ के अश्वों की वल्गाएँ।

-- डॉ विद्यानंद राजीव

७- कफ़न के बस्ते

चील गिद्ध कौवे मंडराते
लिए कफ़न के बस्ते

पलक झपकते ही बिछ जाती
लाशों पर जब लाशें
शक-संदेहों के घेरों से
निकल न पातीं फांसें
छाई रहती है दहशतगर्दी
सुबह शाम दोपहरी
सरकारी पहरुए सो गए
नींदे इतनी गहरी
टिड्डी दल बन फसल चाटते
आतंकों के दस्ते

कांक्रीट के जंगल बुनते
वन उपवन की ठठरी
पञ्च तत्व हो गए विषैले
चिंतित दुनिया सबरी
तापमान की उछलकूद से
काँप उठा भूमंडल
प्रक्रति नटी के तेवर तीखे
लिए विनाश कमंडल
वादों के दलदल में दुनिया
भटक गई है रस्ते

-- डॉ. जय जयराम आनंद

१०- घमासान हो रहा

आसमान लाल-लाल हो रहा,
धरती पर घमासान हो रहा।

हरियाली खोई है,
नदी कहीं सोई है,
फसलों पर फिर किसान रो रहा।

सुख की आशाओं पर,
खंडित सीमाओं पर,
सिपाही लहू लुहान हो रहा।

चिनगी के बीज लिए,
विदेशी तमीज लिए,
परदेसी धान यहाँ बो रहा।

-- भारतेंदु मिश्र

११- हादसे ही हादसे

बाजुओं में
उफ़, अचाहे ही कसे,
हादसे, बस, हादसे ही हादसे।

चाह थी सब
लोग आपस में रहें,
प्रेम, श्रद्धा, स्नेह, सुख से, मेल से।
क्या पता था,
स्वार्थ निर्मित ट्रैक पर,
कटेंगे हम, नफ़रतों की रेल से।

और भोले
यात्रियों की नियति पर,
व्यंग्य बेपरवाह सिग्नल ने कसे।

मकबरों में
बदल जाना घरों का,
यातनाओं का बहुत लंबा सफ़र।
देखकर भी
लोग क्यों पढ़ते नहीं,
इस तरह पल-पल बिखरने की ख़बर।

फितरतें हर
पल जहाँ पर दाँव दें,
चाहकर भी आदमी कैसे हँसे?

-- अजय गुप्त

१३- काला कूट धुआँ

नस-नाड़ी अग्नि दहकाता काला कूट धुआँ
बन कर आँसू भरी आँख से आया फूट धुआँ

सरसों झुलसी, सूखी तुलसी
घर अंगने बदरंग।
मक्खन जैसी देह का छिन मे,
छलनी हो गया अंग।
अरमानों
की फ़सल को पल में ले गया लूट धुआँ

बिटिया बहना निपट अकेली,
चौखट बिखरे केश
देह हुलसती लकवा खा गयी,
फुलकारी हुई श्वेत
उम्र चौरासी के सपनों को कर गया ठूँठ धुआँ

भटके बछड़ों के सपनों की ,
ऊँची उड़े पतंग|
रोज़ी-रोटी की आसानी,
सीख और सत्संग|
काले बादल चीर के उजली दे जाये धूप धुआँ

-- प्रवीण पंडित

१५- धैर्य का कपोत

बाज़ों की बस्ती में
धैर्य का कपोत फँसा
गली-गली अट्टहास
कर रहे बहलिए।

तर्कों की गौरेया,
इधर-उधर दौड़ती,
दर्पण से लड़ा-लड़ा
स्वयं चोंच तोड़ती।
आस्थाएँ नीड़ों में
पंख फड़फड़ा रहीं,
आँगन के रिश्ते तक हो
गए दुभाषिए।

संयम का सुआ रोज़,
पिंजड़े से लड़ रहा,
'राम नाम' के पथ पर
इंकलाब जड़ रहा।
किसको है ख़बर,
क्रौंच सच का क्यों मर रहा?
बिना पता घूम रहे
मौसम के डाकिए।

-- राधेश्याम बंधु

१७- स्वस्ति आतंकों घिरी

काग़ज़ों में खो गई संवेदना।
आप ही कहिए -
करें तो क्या करें?

शब्द-मंथन भी हुआ है,
अर्थ-चिंतन भी हुआ है,
किंतु निर्वासित हुई है सर्जना।
आप ही कहिए -
करें तो क्या करें?

स्वस्ति आतंकों-घिरी है,
लेखनी की मति फिरी है,
विश्वव्यापी अर्थ की अभ्यर्थना।
आप ही कहिए -
करें तो क्या करें?

बादलों की छाँव-ख़ातिर,
राह से भटका मुसाफ़िर,
कुछ कहो तो है 'उभयनिष्ठी' तना।
आप ही कहिए -
करें तो क्या करें?

-- राजेंद्र वर्मा


कार्यशाला-
४ जून २०१०

२- फिर कब आएँगे?

चिट्ठी-पत्री, ख़तो-क़िताबत के मौसम
फिर कब आएँगे?
रब्बा जाने,
सही इबादत के मौसम
फिर कब आएँगे?

चेहरे झुलस गए क़ौमों के लू-लपटों में,
गंध चिरायँध की आती छपती रपटों में।
युद्धक्षेत्र से क्या कम है यह मुल्क हमारा -
इससे बदतर
किसी क़यामत के मौसम
फिर कब आएँगे?

हवालात-सी रातें दिन कारागारों से,
रक्षक घिरे हुए चोरों से, बटमारों से।
बंद पड़ी इजलास,
ज़मानत के मौसम
फिर कब आएँगे?

ब्याह-सगाई, बिछोह-मिलन के अवसर चूके,
फसलें चरे जा रहे पशु हम मात्र बिजूके।
लगा अँगूठा कटवा बैठे नाम खेत से -
जीने से भी बड़ी
शहादत के मौसम
फिर कब आएँगे?

-- नईम

३- कोयल भूली कूक

आतंकित हो मानवता की कोयल भूली कूक,
अंधा धर्म लिए फिरता है हाथों में बंदूक

नफ़रत के प्यालों में
जन्नत के सपनों की मदिरा देकर
दोपाए मूरख पशुओं से,
मासूमों का कत्ल कराकर
धर्म बेचने वाले सारे रहे ख़ुदी पर थूक

रोटी छुपी दाल में जाकर
चावल दहशत का मारा है
सब्जी काँप रही है थर-थर
नमक ही कथित हत्यारा है
इसके पैकेट में आया था लुक-छिपकर बारूद

इक दिन आयेगा वह पल
जब अंधा धर्म आँख पाएगा
देखेगा मासूमों का खूँ
तो रोकर वह मर जाएगा
देगी मि
टा धर्मगुरुओं को फिर उनकी ही चूक

-- धर्मेंद्रकुमार सिंह ’सज्जन’

५- आँगन में उतरे

आँगन में उतरे जो साए,
विस्फोटों से दिल दहलाए।
तड़-तड़ करके ऐसे चीखे,
घरवालों को मौत सुलाए।

पाँव बड़े
आतंक के देखे,
रह गए सारे
हक्के-बक्के।
ख़ून-ख़राबा, गोला-बारी
गलियाँ सूनी मरघट चहके।
पौरुषता को कभी न भाये।

धर्म-जुर्म का
गहरा नाता,
सहमी बहना
सहमा भ्राता।
आचार संहिता दम तोड़े तो
दुर्बल कोई न्याय न पाता,
सबको दहशत से धमकाए।

अजगर भय का
जग को लीले,
कृष्ण ही आकर
इसको कीलें।
एक नहीं अब कई चाहिए
शिव जो उग्रवाद को पीलें,
ऐसा ज़हर कौन पी पाए?

--निर्मल सिद्धू

८- बौराए हैं बाज फिरंगी

चिर निद्रा में गई रागिनी,
कैसे भोर जगाएगी?
बौराए हैं बाज फिरंगी,
कैसे चिड़िया गाएगी?

प्यूपा बनने से पहले ही,
कौए ने खाया इल्ली को!
फूलों से आ सुमुखी तितली,
कैसे कुछ बतियाएगी?
फूलों से पराग भी ग़ायब,
वह उनसे क्या पाएगी?

घृणा-द्वेष भर अंगारों-सी
दहशत उगल रही जो “नाली”
सोचो, ज़रा बाँसुरी उससे
कैसे बनकर आएगी?
भाईचारे की स्वरलहरी
कैसे मन को भाएगी?

-- रावेंद्रकुमार रवि

९- पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं

पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली

छोड़ निज जड़ बढ़ रही हैं.
नए मानक गढ़ रही हैं.
नहीं बरगद बन रही ये-
पतंगों सी चढ़ रही हैं.

चाह लेने की असीमित-
किंतु देने की कंगाली.
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली

नेह-नाते हैं पराये.
स्वार्थ-सौदे नगद भाये.
फेंककर तुलसी घरों में-
कैक्टस शत-शत उगाये.

तानती हैं हर प्रथा पर
अरुचि की झट से दुनाली.
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली

भूल देना-पावना क्या?
याद केवल चाहना क्या?
बहुत जल्दी 'सलिल' इनको-
नहीं मतलब भावना क्या?

जिस्म की कीमत बहुत है.
रूह की है फटेहाली.
पीढ़ियाँ अक्षम हुई हैं,
निधि नहीं जाती सँभाली

-- संजीव वर्मा 'सलिल'

१२- किससे कहें हम

बच्चों के सीनों से
चिपके हैं बम,
अट्टहास करते हैं
देख परचम।

गलियों में रस्तों पर
खून की फुहार,
लटके तस्वीरों पर
मुरझाए हार।
देख-देखकर होतीं
आँखें नित नम।

अपनों के बीच उगी
सुदृढ़ दीवार,
हिस्सों बँटता गया
अन्तस् का प्यार।
हृदय की पीड़ा को
किससे कहें हम

-- अशोक अंजुम

१४- हँसते रहे दरिंदे

जाते जाते चले गए
पर लिख गए एक कहानी
कहीं लिख गए धुआँ आग
कहीं लिख गए पानी

दहशत भरी इबारत लेकर
हवा गयी हर घर में
जाने किसकी नज़र लग गई
फूले फले शहर में

बारूदी दुर्गंध शब्द में
आग उगलती बानी

लहू लुहान हो गए शिवाले
खंडित हुई नमाज़ें
चिड़ियों के जल गए घोंसले
खुशबू किसे नवाज़ें

सन्नाटे में खौफ़ लिखा है
हर यात्रा अनजानी

मेजों पर टँग गए खिलौने
घायल हुए परिंदे
रक्त सनी मुट्ठियाँ उठाए
हँसते रहे दरिंदे

युद्ध भरा आकाश सदी का
बनकर रहा निशानी

-- चन्द्रेश गुप्त

१६- सो गई है मनुजता

सो गई है मनुजता की संवेदना
गीत के रूप में भैरवी गाइए
गा न पाओ अगर जागरण के लिए
कारवां छोड़कर अपने घर जाइए

झूठ की चाशनी में पगी ज़िंदगी
आजकल स्वाद में कुछ खटाने लगी
सत्य सुनने की आदी नहीं है हवा
कह दिया इसलिए लड़खड़ाने लगी
सत्य ऐसा कहो‚ जो न हो निर्वसन
उसको शब्दों का परिधान पहनाइए।

काव्य की कुलवधू हाशिए पर खड़ी
ओढ़कर त्रासदी का मलिन आवरण
चन्द सिक्कों में बिकती रही ज़िंदगी
और नीलाम होते रहे आचरण
लेखनी छुप के आंसू बहाती रही
उनको रखने को गंगाजली चाहिए।

राजमहलों की कालीनों में खो गया
कितनी रंभाओं का वह कुंआरा रुदन
देह की हाट में भूख की त्रासदी
और भी कुछ है तो उम्र भर की घुटन
इस घुटन को उपेक्षा बहुत मिल चुकी
अब तो जीने का अधिकार दिलवाइए।

भूख के प्रश्न हल कर रहा जो उसे
है जरूरत नहीं कोई कुछ ज्ञान दे
कर्म से हो विमुख व्यक्ति गीता रटे
और चाहे कि युग उसको सम्मान दे
ऐसे भूले पथिक को पतित पंक से
खींच कर कर्म के पंथ पर लाइए।

कोई भी तो नहीं दूध का है धुला है
प्रदूषित समूचा ही पर्यावरण
कोई नंगा खड़ा वक्त की हाट में
कोई ओढ़े हुए झूठ का आवरण
सभ्यता के नगर का है दस्तूर ये
इनमें ढल जाइए या चले आइए।

--डॉ. जगदीश व्योम

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