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३१. ५. २०१०

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यह तो देखिए
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  हो गई है सोच
दहशतगर्द यह तो देखिए
जिंदगी है मौत की
हमदर्द यह तो देखिए

रहनुमाई रासलीला में
यहाँ मशगूल है,
ये भलाई भी करेगी
मानना ये भूल है,
चापलूसी फल रही
बेपर्द यह तो देखिए।

फर्क हम कैसे करें
अब घर, शहर, सुनसान में,
लुट रही है, राखियाँ
हर खेत हर खलिहान में,
खून सबका हो गया है
सर्द यह तो देखिए।

चाँद से आगे गए
नजदीकियों की खोज में,
फासले बढते रहे
खुदगर्जियों के बोझ में,
बाँटता है कौन किसका
दर्द यह तो देखिए।

- शंभु शरण मंडल
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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन
-|- सहयोग : दीपिका जोशी
   
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