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२४. ५. २०१०

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ये घर बनानेवाले
 

  बेघर सदा रहे हैं
ये घर बनानेवाले

तारों की छत खुली है
धरती बनी बिछौना
इस बेरहम शहर में
मस्ती में डूब सोना

रातों में गा रहे हैं
दीया जलानेवाले

शिख नभ को छू रहे हैं
सुख से हैं जो अघाए
किसका बहा पसीना
कभी जान ये न पाए

लू के थपेड़े खाकर
छैंया दिलाने वाले

वे आज हैं यहाँ पर -
कहीं और कल ठिकाना
साँसें बची है जब तक
गैरों के घर बसाना

सोएँगे नींद गहरी
न जाग पाने वाले

- रामेश्वर कांबोज ‘हिमांशु’
इस सप्ताह

गीतों में-

अंजुमन में-

छंदमुक्त में-

हाइकु में-

पुनर्पाठ में-

पिछले सप्ताह
१७ मई २०१० के अंक में

दोहों में-
राकेश शरद

गीतों में-
डॉ. अजय पाठक

अंजुमन में-
जतिन्दर परवाज़

देशांतर में-
तेजेन्द्र शर्मा

पुनर्पाठ में-
राजेन्द्र वर्मा

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन
-|- सहयोग : दीपिका जोशी
   
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