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सुलभ हुये संसाधन
लेकिन जीना हुआ कठिन।
जगे सबेरे, नींद अधूरी
पलकों भरी खुमारी
संध्या लौटे, बिस्तर पकड़ा
फिर कल की तैयारी
भाग-दौड़ में जाया होते
जीवन के पलछिन।
रोटी का पर्याय हो गया
कम्प्यूटर का माउस
उत्सव का आभास दिलाता
सिगरेट, कॉफी हाउस
आंखों में उकताहट सपने
टूट रहे अनगिन।
किश्तों में कट गयी जिंदगी
रिश्ते हुये अनाम
किश्तों की भरपाई करते
बीती उमर तमाम
गये पखेरू जैसे उड़कर
लौटे नहीं सुदिन।
लहू चूसने पर आमादा
पूंजीवाद घिनौना
जिसके आगे सरकारों का
कद है बिलकुल बौना
अब जीवन को निगल रहे हैं
अजगर जैसे दिन। --डॉ. अजय पाठक |