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किशोर कुमार कौशल के दोहे

 

 

मुंबई

'इकडे-तिकडे' दौड़ते घर से बिछड़े लोग
सिकुड़े-सिकुड़े हो गए तगड़े तगड़े लोग

वड़ा-पाव खाते चलें और कटिंग पी चाय
निपट मशीनी जिंदगी सरपट दौड़ी जाय

सटकर नित प्रेमी-युगल बैठें सागर-तीर
हम बेशर्मी कह रहे, वे कहते तकदीर

तुम इतराते रूप पर उनको नहीं गुमान
गाँवों में बसता अभी मेरा हिंदुस्तान

ज्ञानेश्वर ने जो कहा, कहते वही कबीर
खांडेकर की पीर है प्रेमचंद की पीर

महानगर सब एक से, सजे हुए बाजार
निशि-दिन होता है यहाँ, तन-मन का व्यापार

नगरों की पहचान है अनजानों की भीड़
पागल मन तो ढूँढता अपनेपन का नीड़

जीवन का मेला लगा, बिखरे रंग हजार
तू भी कोई छाँट ले, क्यों बैठा मन मार

घर-बाहर सब एक है, अंतर रखिए शुद्ध
घऱ में रहो कबीर से, बाहर जैसे बुद्ध

१० मई २०१०

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