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ओ नदी!
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ओ नदी
इतना बता दो रेत क्यों होने लगीं
क्यों भरापन देह का तुम इस तरह खोने लगीं
नीर तेरी
सभ्यता का
सूखने कैसे लगा है
भाईचारे का किनारा टूटने कैसे लगा है
नफरतों की नाव सूखी पीठ पर ढोने लगीं
पत्तियाँ संस्कार की
क्यों आज पीली पड़ रहीं हैं
आज शाखाएँ तुम्हारी क्यों जड़ों से लड़ रहीं हैं
वृक्षवत थीं ये बताओ ठूंठ क्यों होने लगीं
भीड़ है इतनी
तटों पर किंतु वो मेले कहाँ हैं
ठौर, जिन पर कृष्ण राधा से हँसे-खेले कहाँ हैं
वो ठहाके क्या हुए क्यों आजकल रोने लगीं
भव्यता के खँडहर
अब भी दुहाई दे रहे हैं
दाग़ रेतीले कपोलों पर दिखाई दे रहे हैं
शेष जल के आँसुओं से दाग़ भी धोने लगीं
तुम हो दोनों कूल हैं
पर शख्सियत यों झड़ रही है
आदमी ज्यों जी रहा पर आदमीयत मर रही है
जागतीं थीं रात-दिन क्यों आजकल सोने लगीं --त्रिमोहन
तरल |
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