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सूर्य की
पहली किरण हो,
चहकती मनुहार हो तुम,
प्रीति यदि पावन हवन है, दिव्य मंत्रोच्चार हो तुम।
इस धरा से
व्योम तक तुमने उकेरी अल्पनाएँ,
छू रही हैं अंतरिक्षों को
तुम्हारी कल्पनाएँ।
चाँदनी जैसे सरोवर में करे अठखेलियाँ,
प्रेमियों के उर से जो निकलें वही
उदगार हो तुम
रातरानी,
नागचम्पा, गुलमोहर, कचनार हो,
तुम रजत के कंठ में ज्यों
स्वर्णमुक्ता हार हो।
रजनीगन्धा की महक तुम ही गुलाबों की हँसी,
केतकी, जूही, चमेली, कुमुदिनी,
गुलनार हो तुम।
जोगियों का
जप हो तप हो, आरती तुम अर्चना,
साधकों का साध्य तुम ही
भक्त की हो भावना।
पतितपावन सुरसरि, कालिंदी तुम ही नर्मदा,
पुण्य चारों धाम का हो स्वयं ही
हरिद्वार हो तुम।
हो न पाऊँगा
उऋण मैं उम्र भर इस भार से,
पल्लवित, पुष्पित किया जो
बाग़ तुमने प्यार से।
स्वामिनी हो तुम हृदय की, प्रेयसी तुम ही प्रिया,
जो बिखेरे अनगिनत रंग फागुनी
त्यौहार हो तुम।
--रमेशचंद्र आरसी |