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२४. ८. २००९

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आए हम शहर

  आए हम शहर
गाँव नेहों का भूल गए!

चेहरों पर एक नहीं
अनगिन हैं पर्तें
कितनी ही जीने की
ऐसी हैं शर्तें

जामुन की छाँव
नीम-बरगद को भूल गए!

कैसे तो दाँव यहाँ
रोज़ लोग चलते
औरों की कौन कहे
अपनों को छलते

कागा का काँव
यहाँ आकर हम भूल गए!

कुछ ऐसी भाग-दौड़
भीतर तक टूटे
सपने जो लाए थे
संग-साथ छूटे

आए थे पाने कुछ,
खुद को ही भूल गए!

- रमेश पंत

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन
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