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मधुछन्दा चक्रवर्ती की
दो कविताएँ

 

मधुछन्दा चक्रवर्ती असम विश्वविद्यालय, सिलचर के हिंदी विभाग में शोध कर रही हैं।

ईमेल- madhuchanda.chakrabarty@gmail.com  
 

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एक दिन

एक दिन
कैसे बीत जाता है?
ये अक्सर सोच में किसी के नहीं आता है
एक दिन जो यूँ ही बीत जाता है

सूर्योदय से दिन की शुरूआत
सूर्यास्त से दिन का अन्त
बस 'इतनी सी बात' ही सबके सामने रह जाती है
पर ये एक दिन
कैसे बीत जाता है?
ये अक्सर सोच में किसी के नहीं आता है
एक दिन जो यू ही बीत जाता है

एक दिन कोई काम की तलाश में बीतता है
एक दिन भूख को मिटाने में बीतता है
एक दिन सवालों के जवाब ढूँढने में बीतता है
एक दिन उलझनों को सुलझाने में बीतता है

एक दिन सच को सामने लाने में बीतता है
एक दिन झूठ को खत्म करने में बीतता है

एक दिन बिखरे चीज़ों को समेटने में बीतता है
एक दिन कुछ चीज़ों को, खयालों को, सपनों को
सवारने में बीतता है
एक दिन
जो सपने को सच करने की कोशिश में बीतता है

एक दिन किसी को याद करने में बीतता है
एक दिन किसी के ख़यालों में बीतता है

एक दिन इसी तरह से बीतता है
हमारे सामने से,
पर अक्सर हमारे ही सोच में नहीं आता है
एक दिन जो हमारे सामने से बीतता है

 

बचपन से आज तक

बचपन से आज तक,
जिन्दगी को कितने रंगों में
बदलते देखा

टॉफ़ी पर ललचाती आखों को देखा,
किताबों से जी को चूराते देखा
और देखा
घने बेर के पेड़ पर चढ़ते अपने आप को

रात को रोशन करते सितारों को देखा,
तो सुबह की पहली किरण में चमकते
हुए ओस की बूंदों से भीगे पत्तों को देखा

और उछलते कदमों को
अपनी मन्ज़िल की तरफ बढ़ते देखा

रात को इंतज़ार करती आँखों को देखा,
सुबह हर काम की जल्दी मचाती हुई
ज़ुबान को सुना

पानी की धारा में
बह जाते हुए हर ख़्याल को पढ़ा,
खुशबू को समेटकर लाती हुई हवा को छूआ
बारिश की बूंदों में भीगकर अपनी तृष्णा को हरा,
आग की तपन से ठण्ड को दूर किया
चांद की रोशनी में नहा के यौवन को पुकारा

ऑफ़िस के काम के बोझ को लेकर
दौड़ते बाबुओं को देखा,
और होली-दिवाली पर मदमस्त होकर थीरकते देखा
राइफ़ल उठाकर परेड पर जाते जवानों को देखा
तो कभी शराब में सराबोर होकर
उन्हें ही लड़खड़ाते देखा

भागा को देखा जो भाग गई
रूबी को देखा जो पागल सी हो गई
शर्मा को देखा जो तेज़ और चालाक था
शतरंज में जो एक मंत्री था

भीख मांगती बूढ़ी मैया को देखा
उसके मुरझाये गालों को देखा
छोटे-छोटे कदम, लकड़ी के सहारे चली आती थी
आटा, मैदा या चावल जो भी मिलता था,
संतोष से ले जाती थी
न जाने
कब वह आएगी
हर पल उसका इंतज़ार किया
पर एक दिन वह नहीं आयी
फिर वो कभी नहीं आयी

इन बातों में एहसास को संग लिए मैं
कब बड़ी हुई इसका पता न चला आज तक
पर सुहाना सा सफ़र था ये मेरा
जो किया मैने बचपन से आज-तक
 

१७ अगस्त २००९

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