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अभिव्यक्ति  

१७. ८. २००९

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कुछ हटके चलो

  भीड़-भाड़ में चलना क्या?
कुछ हटके-हटके चलो

वह भी क्या प्रस्थान कि जिसकी अपनी जगह न हो
हो न ज़रूरत, बेहद जिसकी, कोई वजह न हो,
एक-दूसरे को धकेलते, चले भीड़ में से-
बेहतर था, वे लोग निकलते नहीं नीड़ में से

दूर चलो तो चलो
भले कुछ भटके-भटके चलो

तुमको क्या लेना-देना ऐसे जनमत से है
ख़तरा जिसको रोज़, स्वयं के ही बहुमत से है
जिसके पाँव पराये हैं जो मन से पास नहीं
घटना बन सकते हैं वे, लेकिन इतिहास नहीं

भले नहीं सुविधा से -
चाहे, अटके-अटके चलो

जिनका अपने संचालन में अपना हाथ न हो
जनम-जनम रह जायें अकेले, उनका साथ न हो
समुदायों में झुंडों में, जो लोग नहीं घूमे
मैंने ऐसा सुना है कि उनके पाँव गए चूमे

समय, संजोए नहीं आँख में,
खटके, खटके चलो

- मुकुट बिहारी सरोज

इस सप्ताह

गौरवग्राम में-

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छंदमुक्त में-
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९५वीं जयंती के अवसर पर- शील

संकलन में- देशभक्ति से ओतप्रोत
७० काव्य-रचनाओं का संकलन मेरा भारत

मुक्तक में- आचार्य संजीव सलिल

हास्य व्यंग्य में- पवन चंदन

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