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१. ६. २००९

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लखौरी ईटों का घर

  इसी गली के
आख़िर में है
एक लखौरी ईटों का घर

किस पुरखे ने था बनवाया
दादी को भी पता नहीं है
बसा रहा
अब उजड़ रहा है
इसमें इसकी ख़ता नहीं है
एक-एक कर
लड़के सारे
निकल गए हैं इससे बाहर

बड़के की नौकरी बड़ी थी
उसे मिली कोठी सरकारी
पता नहीं
कितने सेठों ने
उसकी है आरती उतारी
नदी-पार की
कॉलोनी में
कोठी बनी नई है सुन्दर

मँझले-छुटके ने भी
देखा-देखी बाहर फ्लैट ले लिये
दादी-बाबा हैं जब तक
तब तक ही
घर में जलेंगे दीये
पीपल है
आँगन में
उस पर भी रहता है पतझर।

- कुमार रवींद्र

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