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शंका की
देहरी पर चिंतन,
बैठ हाथ मलता है
अपने और परायेपन का, बोध
शिथिल लगता है।सौगंधों के
खुले द्वार पर
खड़ी मौन आकुलता
काँटों से
बदनामी का भय
उपवन की व्याकुलता
मधुर-मधुर शब्दों में
छल, अपनी भाषा गढ़ता है
थकी शिकायत,
निर्णय बहरे
बंधन ढीले-ढीले
नहीं प्रेम
के किसलय संभव
झड़ें न पल्लव पीले
अपयश के हाथों अब
संयम, बिका हुआ लगता है
संकल्पों के चरण भयाकुल
संशय नागफ़नी है
तृष्णातुर संबंध लग रहे
धार बीच तरणी है
नित आहत अरमान
विवश हो, बुझा-बुझा लगता है
- विद्याभूषण मिश्र |