पूरा सफ़र
दिशाहारा है
राही सारे थकित-चकित
चलती हैं
विष बुझी हवाएँ
चंदनवन है आतंकित!
सूरज को
देकर के झाँसा
वंचक लगती हैं उल्काएँ
पथ के
सब संकेत धो गईं
गिरगिट मौसम की मुद्राएँ,
एक मोड़ पर ठिठक गई हैं-
पीढ़ी की पीढ़ी कुंठित!
राजमार्ग
खुद को कहती है
छोटी बड़ी
विपथगा राहें
तौल रही शंकित आँखों से,
तथाकथित विश्वस्त निगाहें,
एक विमूढ़ सदी बेचारी,
ठगी-ठगी-सी स्तंभित!
-रविशंकर |