झाँक-झूँक खिड़की की
स्याह सलाख़ों से
कमरे को पोत रही
अलसाई धूप!
जागा था
चिड़ियों की चोंचों में दिन
सूरज को पाया था
तारे गिन-गिन
देख-देख आंगन से
उठते धुएँ को
अंधियारे घूँघट में
घबराई धूप!
भीगी थी सुर्ख-सुर्ख
बारिश से रात
सोची थी मौसम ने
फ़सलों की बात
खुशबू की फाँसों में
फूलों की चाह लिए
काँटों की बाँदी बन
पछताई धूप!
-आचार्य सारथी |