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					 यह नयी 
					झुग्गी 
					 
					यह नई झुग्गी अभी तनकर खड़ी तो है  
					देख लेना टूटकर गिर जाएगी कल तक। 
					 
					बस्तियाँ बोझिल, उनींदी भोर में 
					पीर डूबी क्रन्दनों के शोर में  
					बन्द रोशनदान जैसी जिंदगी 
					सब्र में लिपटी हुई शर्मिन्दगी  
					 
					नीति की दुर्गति, भयावहता गिरावट की 
					हर किसी की आँख में तिर जाएगी कल तक। 
					 
					हर हथेली पर उभरते आबले 
					पाँव के नीचे लरजते जलजले 
					कामनाएँ देर तक सोती हुईं  
					वेदनाएँ रात भर रोती हुईं  
					 
					गुदगुदी करती समय की खिलखिलाहट भी 
					मौन साधे दर्द के घर जाएगी कल तक। 
					 
					घर गिरे, उजड़ीं पुरानी बस्तियाँ 
					फिर उठीं चौरास्तों से गुमटियाँ  
					बन्द आँखों में सुलगती आग है 
					आँसुओं में अग्निधर्मा राग है 
					 
					आँधियाँ शायद, सभी कुछ ध्वस्त ही कर दें 
					किन्तु मेहनत फिर उसे सिरजाएगी कल तक 
					 
					१ दिसंबर २०१६ 
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