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                  मानता हूँ 
					मानता हूँ जिन्दगी की रात गहराई 
					नहीं है। 
					किंतु जीवन का उजाला भी तो स्थायी नहीं है। 
					 
					आज कितने ही सुधा से सींचते हैं कंठ अपने 
					किंतु उनमें से कोई भी कंठ विषपायी नहीं है। 
					 
					जिन मकानों पर तुम्हारी लेखनी का सूर्य उतरा 
					अब वहाँ की एक भी दीवार पर काई नहीं है। 
					 
					और सचमुच धूप से तुम तंग आकर चल दिये जब 
					आज तक छाया दरख्तों की मुझे भायी नहीं है। 
					 
					क्या निभाएँगे वो रस्में प्यार की ‘कौशल’ जिन्होंने 
					प्यार की कसमें कभी भी भूलकर खाई नहीं हैं। 
					१ दिसंबर 
					२०१५ 
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