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अनुभूति में श्यामल सुमन की रचनाएँ-

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दोहों में व्यंग्य
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मुस्कुरा के हाल कहता
मेरी यही इबादत है
मैं डूब सकूँ
रोकर मैंने हँसना सीखा
रोग समझकर
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बेबस है जिन्दगी

बेबस है जिन्दगी और मदहोश है ज़माना।
इक ओर बहते आँसू इक ओर है तराना॥

लौ थरथरा रही है बस तेल की कमी से।
उसपर हवा के झोंके है दीप को बचाना॥

मन्दिर को जोड़ते जो मस्जिद वही बनाते।
मालिक है एक फिर भी जारी लहू बहाना॥

मजहब का नाम लेकर चलती यहाँ सियासत।
रोटी बड़ी या मजहब हमको ज़रा बताना॥

मरने से पहले मरते सौ बार हम जहाँ में।
चाहत बिना भी सच का पङ़ता गला दबाना॥

अबतक नहीं सुना तो आगे भी क्या सुनोगे।
मेरी कब्र पर पढ़ोगे वही मरसिया पुराना॥

होते हैं रंग कितने उपवन के हर सुमन के।
है काम बागबाँ का हर पल उसे सजाना॥ 

१६ अप्रैल २०१२

 

 

 
 

 

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