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                  अनुभूति में 
                  राजेन्द्र चौधरी की रचनाएँ- 
                   
                  छंदमुक्त में-आधार
 पुनरावृत्ति
 लोरियाँ कविताओं में
 
                  मुक्तक में-मुक्तक
 कुछ  मुक्तक और
 
 अंजुमन में-
 अपनों के हाथों
 कैकेयी की
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                  कुछ मुक्तक और
                   हम बबूलों की परवाह करते रहे,घर की तुलसी की सूखी जडें भी घुनीं।
 सीता आदर्श कहलाई जग में यहाँ,
 उर्मिला की व्यथा न किसी ने सुनी।
 
 राधा पूजी गयी मन्दिरों में यहाँ,
 और किताबों में दब के रही रुक्मणी।
 माँ की बोली से बेटे बेगाने हुए,
 हमने भाषा की नीति यह कैसी चुनी।
 
 प्यार में भी जिस्म की कुछ दूरियाँ रखो,
 नजदीकियों में बेपनाह हैं फासले यहाँ।
 होठों को साफगोई की आदत न डालिये,
 सच बोलने सुनने के हैं अब हौसले कहाँ।
 
 ऊँचे शरीफ लोग भी देखे करीब से,
 थे दूर तक नीचाइयों के सिलसिले वहाँ।
 फुर्सत कभी निकाल कर खुद में भी झाँकिये,
 इन्सानियत के शव मिलेंगे अधजले वहाँ।
 
 अपनी नज़र में गिरके बडे हो रहे हैं लोग,
 अब जिन्दगी के तौर तरीके बदल गये।
 मिलते थे आदमी से आदमी की तरह जो,
 इस दौर में वे शख्स वे चेहरे बदल गये।
 
 व्यापार की बू है यहाँ अब बातचीत में,
 लोगों की गुफ्तगू के सलीके बदल गये।
 कुछ बोलने से पहले ज़रा सोच लीजिये,
 सच बोलने सुनने के नतीजे बदल गये।
 
 सच्चाइयों को होंठ पे लाने से पहले सोच लो,
 अब बन चुका है जुर्म सच, और झूठ काज़ी हो गया।
 किससे उम्मीदें लगायें रोशनी के वास्ते,
 जब उजाला खुद अँधेरों में ही साझी हो गया।
 
 किस तरह से हमने खोदी अपने कल की नींव यह,
 कब्र सी लगती है जिसमें दफ्न माज़ी हो गया।
 वह शख्स जिसके जिस्म में कहते थे रीढ है,
 अब सुना है पेट से झुकने को राज़ी हो गया।
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