| पहाड़ के उस पार 
                  मैंने तुमसे बार-बार कहा कि मेरी इस थोड़ी-सी ज़िंदगी में
 थोड़ा ही मेरा
 बाकी तुम्हारा
 तुमने बन्द कर ली अपनी आँखें हर बार
 और ढुलक पड़ा उनसे दो बूँद आँसू
 हर बार उन आँसुओं में मैंने अपनी महानता देखी
 और फिर उस थोड़े में ही मैंने
                  खड़ा कर दिया एक पहाड़
 और कहा तुमसे कि चढ़ो -
 कि ज़िंदगी एक पहाड़ ही तो है
 अपनी इस यात्रा में जब भी थककर तुमने सुस्ताना चाहा
 अपने थोड़े-से अंश का पूरा उत्साह
 मैंने
 तुम्हारे नाम कर दिया
 तुम फिर चल पड़े
 दुगुने उत्साह से।
 उस दुर्गम चढ़ाई में जब भी 
                  फिसला तुम्हारा पाँवऔर लगी तुम्हें चोट
 अपने थोड़े से अंश की पूरी संवेदना
 मैंने उड़ेल दी
 तुम्हारे सम्मुख
 तुम्हारा घाव भर-सा गया
 तुम चल पड़े।
 चढ़ते-चढ़ते जब विषमता ने तोड़ 
                  दिया तुम्हेंऔर पत्थरों ने कर दिया लहूलुहान
 और असहाय होकर तुमने बढ़ाया हाथ अपना
 मेरी तरफ़
 सहारे के लिए
 कि चल नहीं सकोगे तुम और
 फिर पूछा मुझसे
 कि क्या है पहाड़ के उस पार
 मैंने कहा - ''पहाड़ ही होगा।''
 २९ सितंबर २००८ |