| कहाँ कहाँ डोलूँगा 
                  मैंने अपना हाथ तुम्हारे सम्मुख
 इसलिए नहीं फैलाया था
 कि तुम सारा अस्तित्व ही रख दो
 उस हाथ के ऊपर।
 बस यों ही फैला दिया थाकि दे दोगे तुम भी
 एकाध कण व कुछ अंश
 जिस तरह दुनिया दे दिया करती है
 हर याचक को
 कुछ मुटठी दाने या
 पैसे के दो चार आने..
 और संतुष्ट हो जाऊँगा मैं,
 पर उड़ेल दिया सारा प्यार
 सारा स्नेह, सम्पूर्ण अनुग्रह
 मुझ याची के हृदय हाथ पर।
 अब तुम्हीं बताओ कहाँ कहाँ डोलूँगा
 अपने हाथ पर
 तुम्हारे प्रेम, स्नेह
 और प्रीति का ब्रह्माण्ड लेकर।
 
 याचक था, पर
 अब स्वामी हो गया हूँ
 तुमसे मिली समृद्धि में ही नहीं
 तुममें खो गया हूँ।
 २९ सितंबर २००८ |