| बात करता है 
                  बात करता है इतने अहंकार कीजैसे बस्ती का हो वो कोई चौधरी!
 राजधानी से गुजरा मैं जिस ओर सेशोर-सा मच गया - अजनबी! अजनबी!!
 मेरे अश्कों की वो भाप थी 
                  दोस्तों,एक एंटीक की तरह बिकती रही
 पूछ मुझसे तू उस रिक्शा वाले का 
                  दुखपूरे दिन में जिसे इक सवारी मिली
 उसकी आँखों में खुशियों के 
                  त्योहार थेउसके हाथों में थी एक गुड़ की डली
 मैंने गज्जक ज़रा-सी दिखाई उसेगाँव के बच्चे ने चॉकलेट फेंक दी
 मेरे महबूब ने मुझसे शिकवा कियाप्यार की चिठ्ठी क्यों इतनी लंबी लिखी
 मौत के सायबां से गुज़रते हुए -वो पुकारा बहुत - ज़िंदगी! ज़िंदगी!
 १६ अप्रैल २००३ |