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अनुभूति में विजय कुमार सप्पत्ति की रचनाएँ--

छंद मुक्त में-
आँसू
तस्वीर
तू
परायों के घर
सिलवटों की सिहरन
 

  तस्वीर

मैंने चाहा कि
तेरी तस्वीर बना लूँ इस दुनिया के लिए,
क्योंकि मुझमें तो है तू, हमेशा के लिए...

पर तस्वीर बनाने का साज़ोसमान नही था मेरे पास,
फिर मैं ढूँढ़ने निकला, वह सारा समान, ज़िंदगी के बाज़ार में...

बहुत ढूँढा, पर कहीं नही मिला; फिर किसी मोड़ पर किसी दरवेश ने कहा,
आगे है कुछ मोड़, तुम्हारी उम्र के,
उन्हें पार कर लो....
वहाँ एक अंधे फकीर कि मोहब्बत की दूकान है,
वहाँ, मुझे प्यार कर हर समान मिल जाएगा...

मैंने वो मोड़ पार किए, सिर्फ़ तेरी यादों के सहारे!!
वहाँ वो अँधा फकीर खड़ा था,
मोहब्बत का समान बेच रहा था...
मुझ जैसे,
तुझ जैसे,
कई लोग थे वहाँ अपने अपने यादों के सलीबों और सायों के साथ...
लोग हर तरह के मौसम को सहते वहाँ खड़े थे.
उस फकीर की मरजी का इंतज़ार कर रहे थे....
फकीर बड़ा अलमस्त था...
खुदा का नेक बंदा था...
अँधा था...

मैंने पूछा तो पता चला कि
मोहब्बत ने उसे अँधा कर दिया है!!
या अल्लाह! क्या मोहब्बत इतनी बुरी होती है..
मैं भी किस दुनिया में भटक रहा था...
ख़ैर, जब मेरी बारी आई
तो, उस अंधे फकीर ने,
तेरा नाम लिया, और मुझे चौंका दिया,
मुझसे कुछ नही लिया... और
तस्वीर बनाने का साजोसमान दिया...
सच... कैसे कैसे जादू होते है ज़िंदगी के बाजारों में!!!!

मैं अपने सपनों के घर आया ..
तेरी तस्वीर बनाने की कोशिश की,
पर खुदा जाने क्यों... तेरी तस्वीर न बन पाई.
काग़ज़ पर काग़ज़ ख़त्म होते गए ...
उम्र के साल दर साल गुज़रते गए...
पूरी उम्र गुज़र गई
पर
तेरी तस्वीर न बनी,
उसे न बनना था, इस दुनिया के लिए... न बनी!!

जब मौत आई तो, मैंने कहा, दो घड़ी रुक जा,
वक्त का एक आखिरी काग़ज़ बचा है... उस पर मैं "उसकी" तस्वीर बना लूँ!
मौत ने हँसते हुए उस काग़ज़ पर,
तेरा और मेरा नाम लिख दिया,
और मुझे अपने आगोश में ले लिया।
उसने उस काग़ज़ को मेरे जनाज़े पर रख दिया,
और मुझे दुनियावालों ने फूँक दिया.
और फिर...
इस दुनिया से एक और मोहब्बत की रूह फना हो गई...

८ दिसंबर २००८

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