अनुभूति में
संजय पुरोहित
की रचनाएँ-
कोई तो है
भीगे अख़बार सा मैं
रे मानव
लो फिर आ गई कालिमा
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रे मानव
''रे मानव, निरे मानव,
मैंने ही कृता था, रचा था तुझे
बनाने को स्वर्ग, मृत्युशील जगत को,
मैंने ही बनाया वाहक तुझे
आनन्द का, दे सके जो
क्षणिक नेह, स्नेह
जीवन-मृत्यु के चक्र
में अटकी धरा को
किंतु तूने गढ़ डाले
मेरे ही कई रूप
भेजे थे मैंने कई हरकारे
जो लाए थे मेरा प्रेम सन्देश
तूने उन्हें भी बाँट डाला
मज़हबों के गुणा भाग में
मैं हूँ शर्मसार
क्योंकि मैं ही तो हूँ
रचयिता तेरा''
फिर से ये अनुगूँज लगी
मुखरित होने
और इसकी प्रतिक्रिया में
हमने अपने
नगाड़े, तुरहियों और
लाऊड स्पीकरों की
आवाज़ को बढ़ा दिया
अधिकतम सीमा तक
अधिकतम सीमा तक
२१ अप्रैल २००८
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