अनुभूति में
संजय पुरोहित
की रचनाएँ-
कोई तो है
भीगे अख़बार सा मैं
रे मानव
लो फिर आ गई कालिमा
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कोई तो है
कोई तो है जो
सहला जाता है, मेरी यादों के श्वेत पखेरुओं को,
और कह जाता है, मेरी अकहे भावों को,
कोई तो है जो
छेड़ जाता है, मेरे हिय दिव्य संतूर को,
और तरंगा जाता है कोई मधु राग,
कोई तो है जो
बरसा जाता है कृति आतुर शब्दों को कतार में
और बिठला जाता है मुझे काव्यसरिता के द्वार,
कोई तो है जो
सुगंधित कर जाता है, मेरे प्राण की अणिमाओं को,
और ललचा जाता है, प्रेरणाओं के नवबिम्ब
कोई तो है जो
सरका जाता है, स्वप्न मेरी नींदों के लिहाफ़ में,
और छितरा जाता है मेरे तमस को,
कोई तो है जो
छलका जाता है, मधुकण मेरे नेत्रों के कोटरों में,
और तृप्ता जाता है, मेरे रोम-रोम रमी प्यास को,
कोई तो है जो,
पहना जाता है मेरी जिजीविषाओं को चेहरों के लबादे,
और रच जाता है, निश्चल निर्मल मासूम पतंगे,
कोई तो है
सींच जाता है, मेरी बंजर अभिलाषाओं को,
और अंकुरा जाता है, मेरी तरुणाई के बीजों को,
कोई तो है,
हाँ, हाँ,
कोई तो है।
२१ अप्रैल २००८
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