अनुभूति में
ऋतेश खरे की
रचनाएँ-
छंदमुक्त
में-
ज़िंदगी के इस सफ़र में
मिट्टी से मिलकर
पतझड़ की गुहार
मुश्किलों में
हाथ में हाथ |
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पतझड़ की
गुहार
रंग उतर जाए पत्तों का तो पतझड़ से दोस्ती कर लेना
वो सूखा है तो क्या, साल भर से भूखा है
बहार से पहले ही आ जाती है उसकी बारी
बड़ी महँगी पड़ती है उसे ये दुनिया की उधारी
लपटों को सहना पड़ता है
चुपचाप ही रहना पड़ता है
कभी जो गर्म हवा को सुक़ूने–राज़ देता
पूरा चमन उसे बदनाम कह आवाज़ देता
उसकी तो व्यथा यही है, मौसम सिर्फ़ तुम्हारे नहीं हैं
क्या उसको पत्तों–सा तन सुखाते अच्छा लगता है
देखो तो प्यासा, कुम्हलाया–सा इक बच्चा लगता है
बारिश उसकी माँ है, जाड़े पिता लगते हैं
लोग इस ऋतु में उसकी सजी चिता लगते हैं
कोयल कूकती है कि चेत जाओ जिधर हो
ठंडे नीड़ में पतझड़ की भला किसे फिकर हो
शीतल सुबह में व्याकुल पतझड़ की पीड़ा है
जलती अगन–सी निर्जल ये अंतः क्रीड़ा है
किवाड़ों के भीतर मनुष्य जो पाता शीतलता है
कठिनाई से मूल्य चुकाते पेड़ों की यही सरलता है
दुविधाओं में फँसे बिना तू माथे पे बल ना लाना
आशंकित भविष्य को दो नये पेड़ों की छाँव लगाना
इतना ही तू कर पाए तो समझना तेरी ही भलाई
पतझड़ की आँखों में ख़ुशी भर ना कि रुलाई
हरे–भरे पेड़ बसा कर, संग मौज–मस्ती कर लेना
रंग उतर जाए पत्तों का तो पतझड़ से दोस्ती कर लेना
९ नवंबर २००६ |