अनुभूति में
ऋतेश खरे की
रचनाएँ-
छंदमुक्त
में-
ज़िंदगी के इस सफ़र में
मिट्टी से मिलकर
पतझड़ की गुहार
मुश्किलों में
हाथ में हाथ |
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मिट्टी से
मिलकर
मिट्टी, मिट्टी से मिलकर सोना उगाती है
अपने वजूद का इक नन्हा सा फूल खिलाती है
उस फूल के चेहरे की नज़ाक़त, मेरी ताक़त है
ये बतलाती है मुझे ज़िंदगी से मुहब्बत है
हर एक हसीन ख़याल की यों ही ख़ुश्बू आती है
मिट्टी, मिट्टी से मिलकर...
तन की धरती पे, मन की बौछारें
महकाएँ मिट्टी, साँसों में इक सपन उतारें
जो प्यार के आगोश में पलता, सच में ढलता है
उसके चेहरे पे दो रूहों का हुस्न खिलता है
बगिया में ज़िंदगी की रौनक आती है
मिट्टी, मिट्टी से मिलकर...
कुदरत ने रिश्ते, कुछ ऐसे जोड़े
हम सब थे अधूरे, थोड़े–थोड़े
कोई एक लगा अपना जो साया, दिल को भाया है
दिन में भी नहीं दिखता कुछ ऐसा हममें समाया है
इक झलक मिलेगी जब यादों की धूप आती है
मिट्टी, मिट्टी से मिलकर...
९ नवंबर २००६ |